Natasha

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राजा की रानी

“ 'वे' कौन?”


“वही कमललता।”

“पर उसे क्या मालूम होगा नवीन?”

“वे नहीं जानती? सब जानती हैं।”

और ज्यादा बहस न करके मैं उत्तेजित नवीन को मठ के बाहर ले आया। कहा, “वास्तव में नवीन, कमललता कुछ नहीं जानती। खुद बीमार होने के कारण वह तीन चार दिन से अखाड़े के बाहर भी नहीं निकली।”

नवीन ने विश्वास नहीं किया। नाराज होकर कहा, “नहीं जानती? वह सब जानती है। वैष्णवी कौन-सा मन्तर नहीं जानती? वह क्या नहीं कर सकती? यदि कहीं वह नवीन के पल्ले पड़ी होती तो उसका ऑंख-मुँह मटकाना और कीर्तन करना सब बाहर निकाल देता। लौंडे ने बाप के इतने रुपये पैसे मानो जादू से उड़ा दिये!”

उसे शान्त करने के लिए कहा, “कमललता रुपये लेकर क्या करेगी, नवीन? वैष्णवी है; मठ में रहती है, गाना गाकर, भीख माँगकर ठाकुर-देवता की सेवा करती है। दो दफे दो मुट्ठी खाती ही तो है और क्या! इसलिए मुझे तो ऐसा नहीं लगा कि वह रुपयों की भिखारिनी है नवीन!”

नवीन कुछ ठण्डा होकर बोला, “अपने लिए नहीं-यह तो हम भी जानते हैं। देखने में भी वह भले घर की लड़की जैसी लगती है। वैसा ही चेहरा और वैसी ही बातचीत। बड़े बाबाजी भी लोभी नहीं हैं, पर उन्होंने वैष्ण्वियों का पूरा एक झुण्ड का झुण्ड जो पाल रक्खा है! ठाकुर-सेवा के नाम पर उन लोगों को हुलुआ-पूड़ी और दूध-घी रोज जो चाहिए! नयन चाँद चक्रवर्ती के मुँह पर घुसफुस सुनी है कि अखाड़े के नाम बीस बीघा ज़मीन खरीदी गयी है! कुछ भी नहीं रहेगा बाबू, जो कुछ है सब एक दिन बैरागियों के पेट में चला जायेगा।”

कहा, “पर यह अफवाह शायद सच नहीं है। और तुम्हारा वह नयन चक्रवर्ती भी तो कम नहीं है!”

नवीन ने फौरन स्वीकार कर कहा, “यह ठीक है। वह धूर्त ब्राह्मण बड़ा झाँसेबाज है। पर कहिए, विश्वास कैसे न करूँ? उस दिन खामख्वाह मेरे ही लड़के के नाम दस बीघा ज़मीन दान कर दी। बहुत मना किया पर नहीं सुना। मानता हूँ कि बाप बहुत रख गया है, पर बाबू, इस तरह बाँटने से कितने दिन चलेगा? एक दिन क्या कहा, जानते हैं? कहा, हम फकीर के वंश के हैं, फकीरी तो हमसे कोई छीन नहीं लेगा? लीजिए, सुनिए इनकी बातें!”

नवीन चला गया। एक बात पर ध्यानन गया। यह उसने एक बार भी न पूछा कि मैं किसलिए इतने दिनों से मठ में पड़ा हुआ हूँ। नहीं जानता कि पूछता तो मैं क्या कहता, पर मन ही मन शर्मिन्दा हुआ। उससे ही और एक खबर मिली कि कालिदास बाबू के लड़के का ब्याह कल धूमधाम से हो गया। सत्ताईस तारीख का मुझे खयाल ही न रहा।

नवीन की बातों पर मन ही मन विचार करते-करते अकस्मात विद्युत-वेग से एक सन्देह उठ खड़ा हुआ- वैष्णवी किसलिए चली जाना चाहती है? कहीं उस मोटी भौंहों वाले कुरूप आदमी के डर से तो नहीं, जो कण्ठी बदलकर पाये हुए पतित्व का दावा करता है? और यह गौहर? मेरे यहाँ रहने के सम्बन्ध में ही शायद इसीलिए वैष्णवी ने इस दिन सकौतुक कहा था कि गुसाईं, मैं अगर तुम्हें पकड़कर रखे रहूँ तो वे नाराज़ नहीं होंगे। नाराज होनेवाले आदमी वे नहीं हैं। पर अब वह क्यों नहीं आता? उसने अपने मन ही मन न जाने क्या सोच लिया है। संसार में गौहर की आसक्ति नहीं है, अपना कहने को भी कोई नहीं है। रुपया-पैसा, धन-दौलत तो उसके लिए ऐसे हैं मानो उन्हें लुटा देने पर ही उसे चैन मिलेगी। प्रेम अगर उसने किया भी हो तो इस डर से वह मुँह खोलकर शायद किसी दिन कहेगा भी नहीं कि कहीं पीछे किसी अपराध का स्पर्श न हो जाए। वैष्णवी यह जानती है। उस अनतिक्रम्य बाधा से चिर-निरुद्ध प्रणय के निष्फल चित्त-दाह से इस शान्त और स्वयं को भूले हुए मनुष्य को बचाने के लिए ही शायद वह यहाँ से भाग जाना चाहती है। नवीन चला गया है और मैं बकुल के नीचे बैठकर उस टूटी वेदी के ऊपर अकेला बैठा हुआ सोच रहा हूँ। घड़ी खोलकर देखी। यदि पाँच बजे की ट्रेन पकड़ना है तो अब और देर नहीं की जा सकती। पर हर रोज न जाना ही इस तरह आदत में दाखिल हो गया था कि जल्दी से उठकर चल देने के लिए आज भी मन पीछे हटने लगा।

चाहे जहाँ भी रहूँ, पूँटू के बहू-भात के समय पहुँचकर अन्न ग्रहण करने का वादा किया था और भागे हुए गौहर को खोज लाना मेरा कर्त्तव्य है। इतने दिनों तक अनावश्यक अनुरोध बहुत माने हैं, पर आज जब सच्चा कारण विद्यमान है तब मान्य करने को कोई नहीं। देखा, पद्मा आ रही है। करीब आकर बोली, “तुम्हें एक बार दीदी बुला रही हैं, गुसाईं।”

फिर लौट आया। ऑंगन में खड़े होकर वैष्णवी ने कहा, “कलकत्ते पहुँचने में तुम्हें रात हो जायेगी, नये गुसाईं। ठाकुरजी का थोड़ा-सा प्रसाद सजा रक्खा है, कमरे में आओ।”

रोज की तरह सावधानी से तैयारी की गयी थी। बैठ गया। यहाँ खाने के लिए मनाने और जोर डालने की प्रथा नहीं है, आवश्यक होने पर माँग लेना होता है। बाकी नहीं छोड़ा जाता।

जाने के वक्त वैष्णवी ने कहा, “नये गुसाईं, फिर आओ न?”

“तुम रहोगी न?”

“तुम बताओ, मुझे कितने दिन तक रहना होगा?”

“तुम ही बताओ कि कितने दिनों बाद मुझे यहाँ आना होगा?”

“नहीं, यह मैं तुम्हें नहीं बताऊँगी।”

“न बताओ, पर एक दूसरी बात का जवाब दोगी, बोली?”

इस बार वैष्णवी ने जरा हँसकर कहा, “नहीं, वह भी मैं न दूँगी। इस समय तुम्हारी जो इच्छा हो सोच लो गुसाईं, एक दिन अपने आप ही उसका जवाब मिल जाएगा।”

कई बार इन शब्दों ने जबान पर आना चाहा, कि अब तो वक्त नहीं है कमललता, कल जाऊँगा- पर किसी भी तरह कह नहीं पाया। यही कहा कि “जाता हूँ।”

पद्मा निकट आकर खड़ी हो गयी। कमललता की देखा देखी उसने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वैष्णवी ने उससे नाराज होकर कहा, “हाथ जोड़कर नमस्कार क्या करती है जलमुँही, पैरों की धूल लेकर प्रणाम कर।”

इस बात से मानो मैं चौंक पड़ा। उसके मुँह की ओर नजर करते ही देखा कि उसने दूसरी ओर मुँह फेर लिया है। तब और कुछ न कहकर मैं उनका आश्रम छोड़कर बाहर चल दिया।

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